Dumchhalla "दुमछल्ला"
Updated: Feb 20, 2021
इस किताब का आपके हाथों में होना जरूरी तो नहीं था लेकिन अब जब यह आपके हाथों में है तो यक़ीनन यह एक महत्वपूर्ण न सही लेकिन जरूरी घटना तो है । आप इतना सोचिए कि इंसान के जीने की आजादी ही, समाज की ग़ुलाम बना दी जाए तो आने वाले पीढ़ी के लिए, उस पर कुछ

भी लिखना या कहना जरूरी हो जाता है ।
दुमछल्ला - आप और हम सभी एक कहावत बरसों से कहते व सुनते आए हैं कि “कुत्ते की दुम बारह साल भी नली में रखो तो भी सीधी नहीं होती ।” उसके विरोधाभास एक कहावत यूँ भी है कि, “कुत्ते सा वफादार कोई जानवर नहीं होता ।”
बात बिल्कुल सही है । अपनी ज़िन्दगी
में हमें जीने के लिए विश्वास करना ही होता है । लेकिन वही विश्वास हमारे जीने में बाधाएँ उत्पन्न करने लगे तो उस रिश्ते के संग फिर घुटन होने लगती है । हम इंसान वफ़ादार तो होते हैं लेकिन हम अपने रिश्ते को बाँधकर रखने की कोशिश में लगे रहते हैं; बिल्कुल उस पूँछ की तरह जिसे चाह कर भी सीधा नहीं किया जा सकता, हाँ मगर उसे काटा ज़रूर जा सकता है । ऐसी घुटन से बचने के लिये उसे काटने की ख़्वाहिश भी सभी रखते हैं । लेकिन कितने लोग इसे काटने में कामयाब हो पाते हैं?
सामाजिक रिश्तें कभी इतने आसान नहीं होतें जितने वे दिखते हैं । कोई समझौता करता है तब जाकर किसी एक को आजादी मिलती है । यदि दोनों को एक सी आजादी चाहिए तो, एक दूसरे से आजाद होना पड़ता है । रिश्ते को बेहतर बनाने की कोशिश में, समय के साथ, हम इतना उलझ चुके होतें हैं कि सामने वाले की भावनाएँ, अपेक्षाएँ या उसका सम्मान भूल जाते हैं ।
समाज की दीवार के बल दुमछल्ला बनकर हम ऐसे खड़े हो जाते हैं कि एक ही ज़िन्दगी को गोल-गोल जीने लगते हैं । हर दिन एक जैसा शुरू होता है, और ख़त्म हो जाता है । वह दुमछल्ला कब उनके गले को आहिस्ता-आहिस्ता दबाने लगता हैं पता भी नहीं चलता । जीने की ख़्वाहिश छोड़कर अंदर ही अंदर सिकुड़ने लगते हैं, अपना अस्तित्व खो देते हैं ।
मुझे नहीं पता कि आप पुनर्जन्म को मानते हैं या नहीं लेकिन मेरे लिए अपने अतीत की यादों से गुजरना, अपने ही जीवन के पुनर्जन्म की तरह है । इसमें सुख नहीं है लेकिन दुःख है; छोटी-छोटी खुशियाँ हैं और पश्चाताप भी है । जिसे अगर मुझे दोबारा जीने का मौका मिलता तो मैं अपनी कुछ गलतियाँ जरूर सुधार लेता; शायद आप भी...
जब इंसान अंदर से टूटता है तो वो अपनी बात समझाने के तरीके ढूँढने लगता है । और जब अंदर भावनाओं का ज्वार उठ रहा हो और सुनने वाला कोई न हो, तो वो खुद के लिए फैसलें लेता है । बेशक वो समाज की मान्यताओं में सही न हो लेकिन वो फिर भी अपने हक़ में फैसलें लेता है । यह कहानी है जागी आँखों से देखें जाने वाले सपनों की, उन अहसासों की, जिन्हें हम जीना चाहते हैं लेकिन जी नहीं पाते
। उन अहसासों की जो जन्म तो लेते हैं लेकिन कुछ समय बाद सिकुड़ जातें हैं । यह कहानी है भावनाओं से भरे 6 लोगों की, जिनमें प्यार, विश्वास, अपनापन तो है लेकिन एक-दूसरे को आज़ादी देने की हिम्मत नहीं है । किसी की एक गलती उन सभी की जिंदगी को उस मोड़ तक ले जाती है, जहाँ से कुछ भी ठीक कर पाना न नहीं था । दखल किसने, किसकी जिंदगी में दिया था, कह पाना मुश्किल है । नादानी, नासमझी या अपरिपक्वता, चाहे जो भी नाम दें लेकिन सवाल तो बस आज़ादी से ही जुड़ा था ।
ख़ैर--- जो भी है, बेगाना या अनजाना नहीं है । यह कहानी उन लोगों की है जो दुमछल्ला नहीं बनना चाहते थे । आप इस कहानी में खुद को, किस हद तक ढूँढ पाएँगे, यह मैं आपके ऊपर छोड़ता हूँ ।