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क्या आपने अपनी पहली किताब लिखी है??
किसी भी लेखक के लिए पहली किताब लिखना एक रोमांचक अनुभव होता है और अपनी किताब को छपवाने के लिए एक नया उत्साह मन में होता है। लेकिन किताब लिखने के बाद पहली चिंता का विषय यही होता है कि किताब छपवाई कैसे जाए? ज्यादातर लेखकों को किताब के प्रकाशन के मामले में ज्यादा जानकारी नहीं होती और अगर होती भी है तो आधी-अधूरी और भ्रांतियों से भरी। एक नये लेखक की एक अलग ही यात्रा होती है, किताब लिख चुकने से बाद से छपने तक। इस यात्रा में लेखक अलग-अलग प्रकार से लोगों से परामर्श लेता है, अलग-अलग दृष्टिकोण के लोगों की राय लेकर वो अपना खुद का कोई नज़रिया विकसित नहीं कर पाता। बेहतर तरीका यह है कि अपने स्तर पर, अपने विचार से काम किया जाए। असल में लेखकों को ये समझने की जरूरत है कि केवल आप ही वो व्यक्ति हैं जिस पर किताब का भविष्य टिका हुआ है। यदि आप प्रकाशन से लेकर मार्केटिंग तक के सफर में गंभीरता से शामिल होंगे तो जरुर आपकी किताब सकारात्मक परिणाम देगी।
कुछ लेखकों का सोचना होता है कि प्रकाशक को पैसे दे दिये मतलब अब सारा काम प्रकाशक का है। वो छापेगा, बेचेगा भी और रॉयल्टी भी देगा। लेकिन कुछ ही महीनों में ऐसा सोचने वाले लेखक निराश हो जाते हैं कि उनकी किताब बिक नहीं रही। कैसे बिकेगी जब आपने अपनी ही किताब के प्रोमोशन में अपना शत प्रतिशत योगदान दिया ही नहीं। यहाँ समझने वाली बात यह है कि प्रकाशक आपकी किताब को उसी स्तर पर प्रोमोट करेगा जिसपर वह सभी लेखकों की किताबों को करता है। आपका यह समझना कि पांडुलिपि और रुपये दे देने के बाद आपका काम खत्म हो गया तो आपको दोबारा सोचने की जरुरत है। आप अपनी किताब के प्रोमोशन पर ध्यान ही नहीं देते और ये समझ लेते हैं कि आपने किताब लिख दी अब वो अपने आप बिक जाएगी जबकि ऐसा होता नहीं है। आपको अपना पाठक वर्ग विकसित करने के लिये मेहनत करनी होगी। कोई भी पाठक किसी लेखक की किताब पढ़ने से पहले लेखक को जानना/समझना चाहता है। लेखक के विचार समझने के बाद ही पाठक एक अंदाजा लगाता है कि किताब में उसे किस तरह के कंटेंट से रूबरू होने का मौका मिलेगा। सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म ये कार्य करने में कारगर साबित हुए है। ऐसे कई लेखक हैं जिनकी किताबें पढ़ने वालों में 90% लोग उनसे सोशल मीडिया के माध्यम से जुड़े हुए हैं। इसके अलावा प्रत्येक लेखक का प्रयास सोशल मीडिया के साथ-साथ जमीनी स्तर पर अपनी किताब के प्रचार का भी होना चाहिए। यदि आप इस काम में सफल हुए तो आपके लिए भविष्य में और किताबें प्रकाशित कराने का रास्ता खुल जाएगा।
इसके विपरीत कई लेखक एक के बाद एक किताबें छपवाते जाते हैं, प्रकाशक बदलते जाते हैं और अंत में मायूस हो जाते हैं। ये खीझ हर किताब के बाद प्रकाशकों के लिए ही होती है। जबकि आपकी किताब की सफलता या असफलता के मुख्य कारण आप पर निर्भर करते हैं, प्रकाशक एक माध्यम है लेकिन यदि आप अपना पूरा समय किताब को देने के लिये तैयार हैं तो आपको किसी प्रकाशक के पास जाने की जरुरत भी नहीं है क्यूँकी किताब खुद भी प्रकाशित की जा सकती है। इसी श्रृंखला में वह लेखक भी होते हैं जो ये चाहते हैं कि उनकी किताब निःशुल्क छाप दी जाये या कम से कम रुपयों में छापी जाए। अक्सर पैकेज देख कर लेखक प्रकाशकों की नीयत का अंदाजा लगा लेते हैं और कई बार रुपया देकर प्रकाशित होने के बाद किताब नहीं बिकती तो अपने आप को ठगा हुआ मान लेते हैं। यहाँ यह भी समझने की जरूरत है कि प्रकाशन एक व्यवसाय है और प्रकाशक किसी भी अन्य सेवा प्रदाता की तरह अपनी सेवाओं के बदले अपने चार्ज बताता है। कई लेखकों को शुरुआत में यह भी नहीं पता होता कि प्रकाशन के अंतर्गत कई कार्य होते न कि सिर्फ प्रिंटिंग। जैसे- एडिटिंग, कवर डिजाइन, ISBN नम्बर, प्रूफ रीडिंग, मार्केटिंग, ज्यादा से ज्यादा जगहों पर किताब की उपलब्धता, सेल्स रिपोर्ट्स, रॉयल्टी देना आदि। बिक्री के लिए ऑनलाइन मार्किट सिस्टम को संभालना भी बहुत मेहनत और टेंशन का काम है।
प्रकाशन के अंतर्गत ढेर सारे काम होते हैं और उस मेहनत के पैसे की भी तो प्रकाशक अपेक्षा करता है चाहे वो बिक्री से प्राप्त करे या स्वयं लेखक से। यदि प्रकाशक आपसे रुपये लिए बिना अपने रिस्क पर किताब छापता है और किताब बिकती नहीं है तो उसे तो नुकसान हो जाएगा। इस मामले में यदि आप ऐसे लेखक है जिनकी पिछली किताबों की बहुत अच्छी बिक्री हुई है तो बेशक प्रकाशक आपको निःशुल्क प्रकाशन की सुविधा दे सकते हैं। इस सुविधा का लाभ आज कई लेखक उठा रहे हैं। इस स्थिति में भी रिस्क प्रकाशक लेता है।
अतः समझने वाली बात ये है कि लेखक और प्रकाशक दोनों के सहयोग और सामंजस्य किताब का भविष्य पर निर्भर करता है। एक और समस्या यहाँ देखने को मिलती है जो है लेखकों को ऑनलाइन बिक्री की समझ न होना। अमेज़न, फ्लिपकार्ट जैसे ऑनलाइन मार्केट में किताबों की कीमत चाहे जितनी हो लेकिन एक प्रकाशक के हिस्से में क्या आता है ये बात सबको समझ नहीं आती है। लेखकों को इस बात की गलतफहमी होती है कि ऑनलाइन किताबें जितने में बिक रही हैं उतना ही पैसा प्रकाशक के पास आ रहा है। जबकि आजकल ऑनलाइन बिक्री इतनी कठिन हो गयी है कि हर तरह की बातें प्रकाशक अपने लेखको को समझा नहीं सकता। डिलीवरी चार्ज से लेकर किताब को प्राइम में डालने की कठिनाइयों के बीच लेखक को यह समझा पाना कठिन हो जाता है कि ये ऑनलाइन बाज़ार काफी रुपया लेने के बाद ही सुविधाएँ हमें प्रदान करते हैं। इसीलिए जरूरी है कि लेखक को प्रकाशन संबंधी जानकारियों के साथ-साथ ऑनलाइन बिक्री संबंधी जानकारियां भी होनी चाहिए, जो गूगल से आसानी से प्राप्त की जा सकती हैं। प्रकाशन के खर्च और इस भ्रांतियों के चलते परेशान लेखक अक्सर सेल्फ पब्लिशिंग की राह पर चले जाते है, वो भी बिना किसी जानकारी के, सिर्फ इस मिथ्या तर्क पर कि वहाँ आपका खर्च कम आएगा और सारा काम प्रत्यक्ष होगा। लेकिन सेल्फ पब्लिशिंग के दौरान आने वाली कठिनाइयां और सारा काम अपने हाथों में लेने के बाद पता चलता है कि आखिर साहित्य जगत में प्रकाशकों का महत्व क्यों है? आज के आधुनिक युग में कुछ प्रकाशकों ने सेल्फ पब्लिशिंग के नये-नये अर्थ बाज़ार में उतार दिये हैं। कुछ के हिसाब से लेखक के इन्वेस्टमेंट से किताब छपना सेल्फ पब्लिशिंग है और कुछ के हिसाब से रेडी टू प्रिंट फाइल देकर किताब प्रिंट करवाना सेल्फ पब्लिशिंग है। बढ़ती आधुनिकता के साथ साथ हिंदी साहित्य जगत में नये-नये अर्थ और शब्द आने से लेखकों में इतनी भ्रांतियां उत्पन्न होने लहीं हैं कि वे ये समझ ही नहीं पाते कि उन्हें करना क्या है और कैसे करना है?
वे पहले प्रकार की सेल्फपब्लिश करेंगे या दूसरे प्रकार की। जो लेखक पहले से इस जगत का हिस्सा है उन्हें ये समझने में आसानी हो सकती है। लेकिन नये लेखक यहाँ कि भूल भुलैया से तब तक वाकिफ नहीं हो पाते जब तक 2-3 साल तक इसमें भटकते न रहें।
अपनी किताब प्रकाशन से पहले कुछ सवालों और तकनीकी शब्दों के प्रयोग की जानकारी ले लेने अच्छा रहता है।
जल्द ही आप प्रकाशन व्यवसाय से जुड़े कुछ तकनीकी शब्दों, प्रकाशक से पूछे जाने वाले सवालों और अन्य जानकारियों से परिचित होंगे... नये लेखकों को अभी यह भी जानकारी नहीं होती कि प्रकाशक से क्या सवाल पूछे जाने चाहिये।